#मित्रता #Friendship

#मित्रता #Friendship

मित्रता, जी हाँ मित्रता का रिश्ता सबसे श्रेष्ठ है ! जानते हैं क्यों? क्योंकि ये रिश्ता कोई भी स्वेच्छा से चुनता है!

आप ने अगर किसी को भी अपना मित्र बनाया, तो आप उसे पसंद करते हैं! आप का, उस से, कहीं मन मिल गया है। असल में मित्रता का रिश्ता ही है, रिश्ता रूह का! प्रेम स्वेछा से नहीं होता, वो तो हो जाता है और खून के रिश्तों में भी आपका कोई जोर नहीं! काम पर कौन आपका बॉस होगा कौन सबोर्डिनेट, ये भी आपकी मर्जी के परे है !

आपकी मन मर्जी चलती है कहीं, तो वो है दोस्ती में! शायद इसीलिए सबसे प्रगाढ़ रिश्ता भी यही होता है! जहाँ आप एक दूसरे को स्वीकारते हैं, अपने अपने असली स्वरुप में.....

क्या ऐसा प्रेम में नहीं होता?

शायद नहीं क्योंकि कहीं न कहीं, उस में मोह और अधिकार की भावना आ जाती है! लोग कहते हैं की, प्रेम, एकनिष्ठा चाहता है, जबकि मित्रता में न तो एकनिष्ट भाव ही अपेक्षित होता है, न ढकोसला, क्योंकि मित्रता तो होती ही है, एक दूसरे के, स्वीकार भाव में!

दुःख में आप अपने मित्र को पुकारते हैं, प्रेमी या प्रेयसी को नहीं। ... स्वार्थी होकर... क्योंकि, प्रेमी- प्रेयसी, एक दूसरे को दुखी नहीं करना चाहते। ...प्रेमी-प्रेयसी,.... प्रेम, काम, वासना, मोह, ईर्ष्या .. सब के पर्याय हो जाते है, आज के परिपेक्ष में !

मगर मित्र, जैसे वो चट्टान होते हैं, जो हर दुःख-सुख में आपके साथ हैं, क्योंकि आज भी मित्रता तो होती ही हैं, स्वेच्छा से! जहाँ मन मिला वहीँ महफ़िल वर्ना कारवां चल देता है कहीं और ! माँ और पिता के बाद कोई रिश्ता है.... तो दोस्ती का।

.... इसीलिए वो जोड़े ही ज्यादा खुश रहते हैं, जो मित्र पहले, फिर प्रेमी- प्रेयसी या पति पत्नी होते हैं!

#मित्रता #पर्याय #प्रेम का